आयुर्वेद का शाब्दिक अर्थ “जीवन का विज्ञान” है। यह स्वास्थ्य की एक ऐसी समग्र प्रणाली है जिसका प्राचीन काल से पालन किया जा रहा है। आयुर्वेद के अनुसार, केवल बीमारियों या रोगों से मुक्ति ही स्वास्थ्य नहीं है, बल्कि यह शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन की स्थिति है। आयुर्वेद के प्राचीन ऋषि, आचार्य सुश्रुत ने स्वस्थ व्यक्ति को परिभाषित किया है। उनके अनुसार, ऐसा व्यक्ति जिसमें दोष (देहद्रव जो शरीर को बनाते हैं), अग्नि (पाचन और चयापचय की प्रक्रिया), धातु (शरीर के ऊतक), मल (मल मूत्र), क्रिया (शारीरिक कार्य) संतुलित है और जो एक संतुलित मन और आत्मा के साथ खुश है, वही व्यक्ति स्वस्थ है।
आयुर्वेद इस विश्वास को मानता है कि उपचार का मार्ग शरीर और मस्तिष्क में संतुलन स्थापित करता है। इस प्रकार, आयुर्वेदिक उपचार में बीमारियों को रोकने के लिए व्यक्ति की जीवन शैली और खानपान की आदतों को बदलने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, साथ ही साथ दोषों में संतुलन बहाल करने के लिए शमन चिकित्सा (शांति या दर्दनाशक उपचार) और शोधन चिकित्सा (शुद्धि उपचार) भी की जाती है।
हमें उम्मीद है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा या आयुर्वेदिक इलाज के संबंध में आपके मन में उठने वाले कई सवालों के जवाब इस लेख में प्राप्त हो जायेंगे।
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आयुर्वेद क्या है? – Ayurveda kya hai in hindi
आयुर्वेद को चिकित्सा की सबसे प्राचीन और प्रमाणित उपचार प्रणाली माना जाता है, जो आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है। स्वस्थ या रोगग्रस्त व्यक्तियों के लिए आयुर्वेद का जो समग्र दृष्टिकोण है, उसकी किसी भी अन्य चिकित्सा विज्ञान से तुलना नहीं की जा सकती है। व्यक्ति को रोग से बचाना और स्वस्थ बनाए रखना आयुर्वेद का मुख्य उद्देश्य रहा है। भगवान धनवंतरी को आयुर्वेद का दैवीय प्रचारक माना जाता है। हिंदू धार्मिक मान्यताओं में उन्हें स्वास्थ्य और धन प्रदान करने वाले देवता का दर्जा प्रदान किया गया है।
आयुर्वेद इस तथ्य को समझता है कि प्रत्येक व्यक्ति अलग है और परिणामस्वरूप, प्रत्येक व्यक्ति का उत्तम स्वास्थ्य की ओर जाने का मार्ग भी अलग होता है। आयुर्वेद व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा को एक संपूर्ण इकाई के रूप में मानता है और इस आधार पर काम करता है कि मन और शरीर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। शरीर और मन एक साथ मिलकर बीमारी को दूर कर सकते हैं।)
आयुर्वेद का इतिहास – Ayurved ka itihas
आयुर्वेदिक चिकित्सा का एक समृद्ध इतिहास रहा है। यह भारत की पारंपरिक चिकित्सा और दुनिया में स्वास्थ्य सेवा की सबसे पुरानी प्रणाली है। यह एक निवारक और उपचारात्मक दोनों प्रकार की विधियों से युक्त प्रणाली है जिसका प्रयोग 5000 वर्षों से भी अधिक समय से किया जा रहा है। मूल रूप से आयुर्वेद का ज्ञान याद रख कर पीढ़ी दर पीढ़ी एक परंपरा के रूप में साझा किया जाता रहा। आयुर्वेद को संस्कृत में 5,000 साल पहले वेद नामक पवित्र ग्रंथों में दर्ज किया गया था।
आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व से उपलब्ध आयुर्वेदिक चिकित्सा की पुस्तकें, न केवल विस्तृत प्रक्रियात्मक निर्देश प्रदान करती हैं, बल्कि यह भी बताती हैं कि समय के साथ आयुर्वेदिक चिकित्सा कैसे विकसित हुई। आयुर्वेद के बारे में वर्तमान ज्ञान मुख्य रूप से “बृहत् त्रयी” नामक तीन महान ग्रंथों पर आधारित है, जिनमें “चरक संहिता”, “सुश्रुत संहिता” और “अष्टांग हृदय” शामिल हैं। इन पुस्तकों में उन मूल सिद्धांतों और नियमों का वर्णन किया गया है जिनसे आधुनिक आयुर्वेद विकसित हुआ है।
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आयुर्वेद के नियम – Ayurved ke sutra
आयुर्वेद का सिद्धांत है कि लोग एक विशिष्ट अवस्था के साथ पैदा होते हैं, जिसे प्रकृति कहा जाता है। गर्भाधान के समय स्थापित प्रकृति को भौतिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताओं के एक अनोखे संयोजन के रूप में देखा जाता है जो प्रत्येक व्यक्ति के कार्य करने के तरीके को प्रभावित करता है।
जीवन भर, व्यक्ति की अंतर्निहित प्रकृति समान रहती है। हालांकि, व्यक्ति की प्रकृति दिन और रात, मौसमी बदलाव, आहार, जीवन शैली तथा विभिन्न आंतरिक, बाहरी व पर्यावरणीय कारकों से प्रभावित होती रहती है। आयुर्वेद बीमारी से बचाव पर बहुत जोर देता है। इसके लिए दैनिक और मौसमी आधार पर उचित आहार नियम के माध्यम से स्वास्थ्य बनाए रखने की सलाह देता है, जिससे व्यक्ति की प्रकृति में संतुलन बना रहता है।
आयुर्वेद कहता है कि तीन गुण होते हैं जिनसे व्यक्ति की प्रकृति की विशेषताएं निर्धारित होती हैं। इन तीन गुणों को “दोष” कहा जाता है। इन दोषों को वात, पित्त और कफ के नाम से जाना जाता है। तीनों गुणों के व्यक्ति के शारीरिक कार्यों पर विशेष प्रभाव होते हैं।
आयुर्वेदिक चिकित्सा के विद्वानों का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति में तीन दोषों का एक नपा-तुला संतुलन है। व्यक्तिगत दोष लगातार परिवर्तित होते रहते हैं। ये व्यक्ति के भोजन, व्यायाम और अन्य कारकों से प्रभावित होते हैं।