देखिए सबसे पहले मैं यह बता दूं कि मुझे भारत देश, भारतीय संस्कृति या यहां के लोगों से कोई परेशानी नहीं है। लेकिन मैं यह बता दूं कि आपके देश में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल वाकई में बहुत खराब है। यह कम से कम 20, और हो सकता है 30 साल पीछे चल रही हैं। कम से कम जब बात जोड़ों और मस्क्यूलोस्केलेटल सिस्टम की बीमारियों की इलाज की आती है तो यही लगता है। हम यह कह सकते हैं कि भारत में रूमेटोलॉजी एक विज्ञान के रूप में अस्तित्व में ही नहीं है।
चलिए देखते हैं भारतीय डॉक्टर इलाज के लिए कौन-कौन सी दवाई लिखते हैं – Viprosal, Dolgit, Voltaren/Fastum जैल, Diclofenac, Teraflex, Nurofen और इसी तरह की दूसरी दवाएं।
लेकिन इन दवाओं से जोड़ और कार्टिलेज ठीक नहीं होते, इनसे सिर्फ लक्षणों में आराम मिलता है – मतलब इनसे दर्द, सूजन आदि बस कम होते हैं। अब जरा सोचिए कि शरीर के अंदर क्या हो रहा होता है। जब हम कोई दवाई लेते हैं, या कोई एनेस्थेटिक जेल लगाते हैं यह हमें इंजेक्शन लगता है तो दर्द चला जाता है। लेकिन जैसे ही दवा का असर खत्म होता है तुरंत दर्द वापस आ जाता है।
दर्द हमारे शरीर के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण संकेत होता है जो जोड़ों की बीमारियों की ओर इशारा करता है। जब हम केवल दर्द को दबाते हैं तो खराब हो रहे जोड़ों पर और भी लोड पड़ता है। यह 3 से 5 गुना ज्यादा तेजी से खराब होने लगते हैं जिससे ऐसे बदलाव हो जाते हैं जिन्हें फिर से ठीक नहीं किया जा सकता और वह पूरी तरह से अपाहिज भी हो सकता है।
यूरोप में जोड़ों के दर्द का यह तरीका 20 साल पहले ही बंद हो चुका है। वहाँ पेनकिलर केवल तभी दी जाती है जब बहुत इमरजेंसी हो और इन्हें भी बहुत सावधानी से सीमित मात्रा में। जर्मनी में तो इन्हें केवल डॉक्टर के पर्चे पर कड़े कंट्रोल में ही खरीदा जा सकता है।
तथाकथित ‘कोंड्रोप्रोटेक्टर’ तो पूरी तरह प्रतिबंधित है क्योंकि यह बेकार की दवाएं हैं और इन पर पैसे खर्च करना बेवकूफी होता है।
आपके यहां के डॉक्टर और दवाई के दुकान वाले लोगों को अपाहिज बना रहे हैं! यह साफ है कि इन महंगी पेनकिलर बेचने से लक्षणों में आराम जरूर मिल जाता है और ये इनके लिए बीमारी को हमेशा के लिए ठीक कर देने से कहीं ज्यादा मुनाफे का सौदा होते हैं। लेकिन ये ऐसा करने की हिम्मत कैसे कर सकते हैं!
– जर्मनी में जोड़ों के इलाज की क्या स्थिति है?
– सभी जर्मन डॉक्टर, रूमेटोलॉजिस्ट, जनरल प्रैक्टिशनर और पैरामेडिक्स लंबे समय से यह जानते हैं कि बीमारी के इलाज के लिए उसकी जड़ पर काम करना पड़ता है ना कि लक्षणों पर। इससे पूरी तरह से, तेजी से और सुरक्षित तरीके से बीमारी ठीक होने की गारंटी मिलती है। और देखिए जोड़ों की समस्याओं का मुख्य कारण आखिर होता क्या है? रक्त प्रवाह में गड़बड़ियों और सिनोवियल फ्लूइड के प्रवाह में विकारों के कारण और ओर्थो-साल्ट्स का जमा हो जाना।
यूरेट या यूरिक एसिड के ट्रू साल्ट, जो वात की जड़ होते हैं।
ओस्टियोफ़ाइट्स या कैल्साइन साल्ट्स से ही जोड़ो और रीढ़ की हड्डियों की 97% बीमारियां होती हैं। यह बीमारियां हैं, सभी प्रकार के आर्थराइटिस और ओस्टियोआर्थराइटिस, डीडीडी, ऑस्टियोपोरोसिस, रूमेटिज्म, बार्सिटिस और यहां तक कि हाइड्रोमा भी। इन सभी बीमारियों की एक ही जड़ होती है – ओस्टियोफाइट्स का जमा हो जाना।
जोड़ों की संरचना पर जम चुके सॉल्ट आसपास के ऊतकों, अर्थात हड्डी और कार्टिलेज को रेगमाल की तरह घिसकर खराब करने लगते हैं। बढ़ते सॉल्ट क्रिस्टल मांसपेशियों के ऊतकों, नसों, रक्त की धमनियों और कैपिलरियों को नुक्सान पहुंचाते हैं। इससे सूजन, इंफेक्शन और भयानक दर्द होता है। सीरियस हो चुके मामलों में ओर्थों-सॉल्ट के बड़े-बड़े टुकड़े हड्डी के एक बड़े हिस्से को आसानी से तोड़ सकते हैं जिससे जोड़ पूरा खराब और स्थाई रूप से अपाहिज हो सकता है।
एक बहुत ही खतरनाक मिथ्या यह है कि कैल्शियम जोड़ों के लिए अच्छा होता है। जी हां, कैल्शियम अच्छा होता है लेकिन केवल तब जब आपके जोड़ स्वस्थ होंगे। जब जोड़ों में दर्द होता है या उनमें क्रैक होता है तो इसका अर्थ यह होता है कि ओस्टियोफाइट्स की एक परत उनके चारों ओर पहले ही जम चुकी है। कैल्शियम हड्डियों के ऊतकों को मजबूती तो देता है लेकिन ओस्टियोफाइट भी लाता है जिससे उनकी बढ़त और तेज हो जाती है। इसलिए जर्मन रूमेटोलॉजिस्ट सबसे पहले खराब हो रहे जोड़ में रक्त प्रवाह वापस लाते हैं जिससे कई सालों से जमा हो रहा ओर्थों-साल्ट बाहर निकलें। इसी से सिनोवियल फ्लूड का प्रवाह सामान्य होता है और जोड़ों के ऊतकों की रिकवरी शुरू हो जाती है।
कैल्सीनोसिसनुक्सान ले चुके और सूजे जोड़साल्ट-क्रिस्टल
जोड़ों की सतह पर ओर्थों-साल्ट की ‘बढ़त’ – सभी बदलावों की जड़
बड़ी अजीब बात है लेकिन जोड़ वापस ठीक होने की बहुत अच्छी क्षमता रखते हैं और इस तरह अपने आप ठीक हो सकते हैं जैसे किसी छिपकली की पूंछ हो जाती है। इन्हें बस ऑर्थो-सॉल्ट के जमावड़े को साफ करने में थोड़ी मदद की जरूरत होती है और बाकी की प्रोसेस ये खुद शुरू कर लेते हैं।
पिछली शताब्दी के 90 के दशक में स्विट्जरलैंड के वैज्ञानिकों ने एक तरह के क्वासी विटामिन बी के एक खास प्रकार को विकसित करने में सफलता पा ली थी। इसे अल्फा-आर्टरोफ़ीरोल भी कहा जाता है। किसी प्राकृतिक घटकों को संश्लेषित करके बनाया जाता है जैसे कि फ़र-नीडल ऑयल, हिरणों के सींग, बेयरिश रेड रूट और 50 से भी ज्यादा दूसरे एक्स्ट्रैक्ट।
यह पदार्थ ओर्थो-साल्ट्स के अणुओं में भी प्रवेश करने की क्षमता रखता है और उन्हें अंदर से तोड़ता है जिससे जोड़ों की सतह साफ हो जाती है, रक्त और सिनोवियल फ्लूइड का प्रवाह वापस सामान्य हो जाता है। इसका असर स्थाई रहता है! या यह कहें कि तब तक बना रहता है जब तक कि सॉल्ट दोबारा नहीं जम जाते (लेकिन ऐसा होने में कई दशक लग जाते हैं)। इसमें आपको दर्द और सूजन से राहत पाने के लिए लगातार दवाइयां नहीं लेनी पड़तीं। अब आपको इस बात का भी डर नहीं होता कि आप के जोड़ कहीं हमेशा के लिए निष्क्रिय ना हो जाएं और आप कहीं अपाहिज ना हो जाएं। लोग कई दशकों तक पूरी तरह स्वस्थ बने रहते हैं।
जब मैंने भारतीय मेडिकल आंकड़े देखें तो मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए। क्या आप जानते हैं भारत में अपाहिज होने का सबसे बड़ा कारण क्या है? यह ना तो कैंसर है ना एड्स और ना डायबिटीज, यह ओस्टियोआर्थराइटिस है! जर्मनी में तो ओस्टियोआर्थराइटिस का इलाज चार से छह हफ्तों में ही बिना महंगी दवाओं के कर दिया जाता है वही भारत में यह पेशेंट को अपाहिज करके रहता है!
आज जर्मनी में जोड़ों की बीमारियों को खतरनाक नहीं माना जाता। मैं भयानक एक्सीडेंट से होने वाली चोटों की बात नहीं कर रहा जैसे: फ्रैक्चर, हड्डियां बुरी तरह टूट जाना आदि। दर्द और सूज चुके जोड़ उनमें जमा हो चुके साल्ट के लक्षण ही हैं जिन्हें सफाई की जरूरत होती है। 4 से 6 हफ्ते के जोड़ो की सफाई के कोर्स से वे अपनी सामान्य अवस्था में वापस आ सकते हैं और समस्याएं अगले दशक तक तो नहीं होतीं।