अतीत काल से ही , जब से हज़रत आदम ने इस धरती पर क़दम रखा है तब से आज तक समस्त बुराइयों, भ्रष्टाचारों, पथभ्रष्टताओं, द्वेष और ईर्ष्या की मुख्य जड़ अहंकार ही रहा है। अहंकार उन बुराईयों में से है जो मनुष्य में पायी जाती है और इस्लाम धर्म की शिक्षाओं और इस्लामी संस्कृति में इसकी बहुत भर्त्सना की गयी है।पवित्र क़ुरआन की बहुत सी आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के बहुत से कथनों में बयान किया गया है कि यह विशेषता नैतिक आपदाओं में से है और मनुष्य के नैतिक शिखर पर पहुंचने में बड़ी रुकावटें उत्पन्न करती है। इस प्रकार अहंकार मनुष्य के दुर्भाग्य का सबसे बड़ा स्रोत समझा जाता है। अहंकार ही मनुष्य को ईश्वर से दूर और शैतान से निकट करता है। यही मनुष्य की भारी आत्मिक व अध्यात्मिक हानियों का कारण बनता है। अहंकारी लोग समाज में सदैव घृणा के पात्र होते हैं और अनुचित व असीमित चाह की आशाओं के कारण सामाजिक अलग थलग का शिकार होते हैं। अहंकार, द्वेष व ईर्ष्या जैसी बुराईयों की चाभी है और इसी के चलते मनुष्य अपमानित भी होता है।ईश्वर जो अनादि, नित्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, निराकार एवं सर्वान्तर्यामी है, की प्रेरणा से ही, सारे कार्य होते हैं, लेकिन मानव समाज इस बात को नहीं समझ पा रहा है। आज के परिवेश में मानव के अंदर अहंकार की वृद्धि तेजी हो रही है। इस त्यागने वाला व्यक्ति ही जीवन में सफल हो पाता है। आज के समय में मनुष्य किसी कार्य आसानी से कर लेता है तो कहता है कि हमने किया। यदि किसी कार्य में व्यवधान उत्पन्न होता है तो कहता है ईश्वर नहीं चाहते थे।

मनुष्य अपनी भीतरी क्षमताओं के दृष्टिगत एक समान नहीं है और उसमें विभिन्न प्रकार की क्षमताएं व योग्यताएं पायी जाती हैं। कुछ लोग थोड़ी सी भौतिक विशिष्टता प्राप्त करके या निम्न अध्यात्मिक स्थान प्राप्त करके इतने अहंकारी हो जाते हैं कि मानो परिपूर्णता व ज्ञान व परिज्ञान के शिखर को पार कर लिया हो।मनुष्य जो ज्ञान उसने प्राप्त किया है उसके कारण अहंकार और आत्ममुगध्ता का शिकार हो जाता है और स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है। इस प्रकार से यह अहंकार उस ज्ञानी का अहंकार होता है जो अपने ज्ञान के कारण अहंकारी हो जाता है और स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है। कभी कभी माल व दौलत मनुष्य को अहंकारी बना देती है जैसा कि क़ारून अधिक माल – दौलत के कारण अहंकारी हो गया था। कुछ लोग अपने कुटुंब को लेकर या किसी विशेष वर्ग से संबंध होने के कारण अहंकार करने लगते हैं। मनुष्य अपनी उपासना और सदकर्म के कारण अहंकार का शिकार हो जाता है और अपनी उपासनाओं को दिखावे के लिए लोगों के सामने पेश करता है। ईश्वर की कृपा और उसके उपकार को भूल जाता है और व्यवहारिक रूप से अपने स्थान को अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझने लगता है। शैतानी बहकावा, भ्रष्ट आंतरिक इच्छाओं का अनुसरण, बदले की भावना, संसार से प्रेम और अधिक से अधिक प्राप्त करने की चाहत, अहंकार के अन्य कारक हैं।

स्वर्ग से शैतान के निकाले जाने का मुख्य कारण अहंकार ही था। इब्लीस फ़रिश्तों में नहीं था किन्तु ईश्वरीय आदेश के पालन के कारण वह उस स्थान पर पहुंच गया था जो फ़रिशतों से विशेष था किन्तु उसने जो स्थान प्राप्त किया था उसे अहंकार के कारण खो दिया। उसके बाद वह अपने किए पर अहंकार के कारण इतना अड़ गया कि न केवल उसने प्रायश्चित नहीं किया बल्कि उसने एक उकसाने वाले के रूप में समस्त अपराधियों और पापियों के अपराध में बराबर का भाग लेने का निर्णय किया। इस प्रकार से मनुष्य की सृष्टि के आरंभ में अहंकार की पहली चिंगारी शैतान के चेहरे पर देखी गयी।जब ईश्वर ने हज़रत आदम की रचना की और सृष्टि में उनके उच्च व श्रेष्ठ स्थान के दृष्टिगत समस्त फ़रिश्तों से आदम का सज्दा करने को कहा तो इब्लीस ने इन्कार कर दिया। ईश्वर ने उससे कहा कि किस चीज़ ने तुझे आदम के सज्दे से रोक दिया। शैतान ने अहंकारी लहजे में कहा कि मैं उससे श्रेष्ठ हूं तू ने मुझे आग से पैदा किया है जबकि उसे गीली मिट्टी से और आग मिट्टी से श्रेष्ठ होती है।अहंकार और आत्ममुग्धता शैतान की राह में रुकावट बन गयी कि वह अपने कल्याण के मार्ग को कि जो ईश्वर के स्पष्ट आदेशों का अनुसरण था, देख सके और वह कल्याण के मार्ग से दूर होता गया और अंततः अवज्ञा की गहरी खाई में जा गिरा और सदैव के लिए धिक्कार का पात्र बन गया। इब्लीस अहंकार के कारण हज़रत आदम की श्रेष्ठता को सहन न कर सका और उसके अनुसरण की श्रेष्ठता पापों के अंधकार में डूब गयी और सदैव के लिए ईश्वर के सीधे रास्ते से भटक गया।

पवित्र क़ुरआन में अपने सबसे बड़े दूत हज़रत नूह की घटना की ओर संकेत करता है कि लोगों ने अहंकार के कारण उनके निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया था | जब हज़रत नूह ने ईश्वरीय संदेश रखा तो उन्होंने कहा हम तो तुम को अपना ही जैसा एक मनुष्य समझ रहे हैं और तुम्हारा अनुसरण करने वालों को देखते हैं कि वह हमारे निचले वर्ग के साधारण लोग हैं, हम तुम में अपने ऊपर कोई विशिष्टता नहीं देखते बल्कि तुम्हें झूठा समझते हैं। हज़रत नूह के चमत्कारों के माध्यम से उनकी सच्चाई को देखा किन्तु अहंकार के कारण उन्होंने उद्दंडता की। पवित्र क़ुरआन इसी प्रकार हज़रत शुएब के वक़्त के लोगो का वर्णन करता है कि लोगो के अहंकारने उन्हें ईश्वरीय निमंत्रण के आगे नतमस्तक होने की अनुमति न दी। पवित्र क़ुरआन में फ़िरऔन की घटना अहंकार की बुराई का एक अन्य रूप है। फ़िरऔन और नमरूद जैसे अहंकारी लोग अपने अहंकार के कारण इस बात को तनिक भी महत्त्व नहीं देते कि किस प्रकार से लोगों से बातचीत की जाए या किस प्रकार लोगों से बर्ताव किया जाए और इतिहास में मिलता है कि इस तरह के लोग ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें करते थे कि उनके निकटवर्ती तक मन ही मन में उन पर हंसते थे।

सुरा इसरा (१७) आयत ३७

“और धरती में अकड़कर न चलो, न तो तुम धरती को फाड़ सकते हो और न लम्बे होकर पहाड़ो को पहुँच सकते हो

अहंकार जीवन के हर चरण में गलत है और आपदा का कारण है, जब एक आदमी अपने धन और सम्पत्ति पर अहंकार का शिकार होता तो वही होता है जिसका उल्लेख अल्लाह ने सूरः कहफ़ में किया है कि उसका सारा बागीचा जल भुन गया। जब आदमी ज्ञान के मामले में अहंकार का शिकार होता है तो ज्ञान की कमी का अनुभव पैदा करने के लिए अल्लाह मूसा अलैहिस्सलाम को ख़िज़्र अलैहिस्सलाम के पास पहुंचाता है और उन्हें आदेश देता है कि ख़िज़्र अलैहिस्सलाम से ज्ञान प्राप्त करें।उसी तरह सुलैमान अलैहिस्सलाम को देखें कि शारीरिक शक्ति के मामले में जब अपने आप पर भरोसा किया और इन शा अल्लाह कहे बिना यह कसम खाई कि वह अपनी सौ पत्नियों के पास एक रात में जाएंगे, उनमें से हर एक योद्धा (मुजाहिद) को जन्म देगी जो अल्लाह के रास्ते में जिहाद करेगा। लेकिन उसे अल्लाह की इच्छा पर नहीं छोड़ा जिसके कारण उन्हें सजा यह मिली कि उन में से एक को छोड़ कर कोई गर्भवती न हुई, और उसने भी आधा बच्चा जन्म दिया। इसलिए ईश्वर के दास अर्थात इंसान को जीवन के हर मामले में अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए, पद हो, धन सम्पत्ति हो, ज्ञान हो, शक्ति हो प्रत्येक मामले में अल्लाह से अनुग्रह मांगना चाहिए। प्रत्येक खूबी उसी की दी हुई है इस लिए किसी भी खूबी को अपनी मेहनत और प्रयास का परिणाम समझने की बजाय अल्लाह की ओर पल्टाना चाहिए। और कभी नही भूलना चाहिए कि ईश्वर जो अनादि, नित्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, निराकार एवं सर्वान्तर्यामी है , की प्रेरणा से ही, सारे कार्य होते हैं |

जिस प्रकार माता, पिता, आचार्यों व अनेक व्यक्तियों का हम पर उपकार, ऋण आदि होता है उससे कहीं अधिक ईश्वर का हम पर उपकार व ऋण है जिसे हम अन्य किसी प्रकार से चुका नहीं सकते। इसका उपाय ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, क़ुरआन और हदीस का स्वाध्याय व उसके अनुसार परोपकार आदि श्रेष्ठ कर्मों को करना है।

ईश्वर ने नबी ﷺको ईशदूत बनाकर भेज कर हमें सम्मानित किया है , हमारे ऊपर बड़ा उपकार किया है| अल्लाह ताला ने फ़रमाया : “अल्लाह ताला ने मोमिनों (आग्याकारी) पर बड़ा उपकार किया है कि उन्ही में से उनके मध्य एक नबी भेजा जो उन पर अल्लाह ताला की आयतें तिलावत करता, उन्हें पाक करता और उन्हें किताब और हिकमत की शिक्षा देता है, अगरचे वो इस से पहले स्पष्ट पथ-भ्रष्टता में थे|” {सूरा आले इमरान

 

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